राजा कीर्ति सिंह जंगल में आखेट हेतु निकले। जंगल में उन्हें कुछ पेड़ मिले जहाँ निशाने के गोले के बीचोबीच तीर गड़ा हुआ था। दस-बारह ऐसे ही तीर देखने के बाद कीर्ति सिंह के मन में उत्सुकता हुई कि उस व्यक्ति से मिला जाए, जो इतना श्रेष्ठ धनुर्धर है कि उसका निशाना हमेशा लक्ष्य के मध्य में ही लगता है। कुछ दूरी पर उन्हें एक व्यक्ति मिला, जो गायें चरा रहा था। उन्होंने उससे प्रश्न किया कि वो तीर किसके हैं ? गायें चराते व्यक्ति ने उत्तर दिया कि वह ही वो धनुर्धर है, जिसके तीर वहाँ पेड़ों में लगे हुए हैं। राजा की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसने बिना उसके कथन की जाँच-पड़ताल किए उसे अपने साथ राज्य लौटने को कहा और वहाँ पहुँचकर उसे राज्य का सेनापति बनाने की घोषणा कर दी।
राजा की आज्ञा से राज्य भर में मुनादी पिटवा दी गई कि राज्य के नए सेनापति अपनी तीरंदाजी का प्रदर्शन करेंगे। हजारों लोग प्रदर्शन देखने के लिए एकत्र भी हो गए। जब उस व्यक्ति से प्रदर्शन दिखाने को बोला गया तो उसे धनुष पर तीर चढ़ाना भी नहीं आता था। अब राजा के क्रोध का ठिकाना न था। उसने उस व्यक्ति से पूछा-"क्यों तुम तो कह रहे थे कि वो तीर तुम्हारे ही हैं, फिर ये झूठ क्यों बोला?" वह व्यक्ति बोला"महाराज! वो तीर तो मेरे ही थे, पर आपने ये पूछा ही नहीं कि मैंने निशाना कैसे लगाया? मैं तो केवल पेड़ों पर तीर गाड़ देता था और उसके चारों ओर गोला खींच देता था।धनुर्धरी तो मैंने कभी सीखी ही नहीं।" सत्यता पता चलने पर राजा के पास अपनी भूल पर " पछताने के अतिरिक्त कोई और मार्ग न था। बिना सही बात जाने, कार्य करने वाले सदा हँसी के पात्र बनते हैं।