कौशाबी के राजा शूरसेन से उनके मंत्री भद्रक ने पूछा-राजन आप श्रीमंत हैं। एक से बढ़कर विद्वानों को राजकुमारों की शिक्षा के लिए नियुक्त कर सकते है। फिर इन पुष्प से कोमल बालकों को वन्य प्रदेशों में बने गुरूकुलों में क्यों भेजते हैं? वहां तो सुविधाओं को सर्वथा अभाव है। ऐसी कष्टसाध्य जीवनचर्या में बालकों को धकेलना उचित नहीं।
शूरसेन बोले-हे भद्रक, जिस प्रकार तपाने से हर वस्तु सुदृढ़ होती है, उसी प्रकार मनुष्य भी कष्टसाध्य जीवनचर्या से परिश्रमी, धैर्यवान, साहसी एवं अनुभवी बनता है। वातावरण का नई आयु में सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। ऋषि संपर्क और कष्टसाध्य जीवन इन दोनों ही सुविधाओं को हम राजमहल में उत्पन्न नहीं कर सकते, यहां तो हम उन्हें विलासी ही बना सकते हैं अस्तु मोह को प्रधानता न देकर राजकुमारों के उज्ज्वल भविष्य को देखते हुए इन्हें गुरू अनुशासन में रहने के लिए भेजना ही उचित हैं।
तर्क और कारणों को समझते हुए भद्रक ने तीनों राजकुमारों को कौशांबी के ऋषिकुल तक पहुँचाने का प्रबंध कर दिया।
(अखण्ड ज्योति से साभार )