तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा ।
सफ़र न करते हुए भी किसी सफ़र में रहा ।
वो जिस्म ही था जो भटका किया ज़माने में,
हृदय तो मेरा हमेशा तेरी डगर में रहा ।
तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा......
तू ढूँढ़ता था जिसे जा के बृज के गोकुल में,
वो श्याम तो किसी मीरा की चश्मे-तर में रहा ।
तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा......
वो और ही थे जिन्हें थी ख़बर सितारों की,
मेरा ये देश तो रोटी की ही ख़बर में रहा ।
तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा......
हज़ारों रत्न थे उस जौहरी की झोली में,
उसे कुछ भी न मिला जो अगर-मगर में रहा ।
तमाम उम्र मैं इक अजनबी के घर में रहा.......