आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती के समक्ष एक बार एक व्यक्ति ने पान पेश किया। स्वामी जी जब पान खाने लगे, तो उन्हें उसका स्वाद कड़वा लगा। वह समझ गए कि इसमें जहर डाला गया है। उन्होंने उससे कुछ नहीं कहा। बाहर जाकर पान को थूक दिया और वमन करके गंगा की ओर चल दिए। बाद में नहा-धोकर अपने आसन पर आ विराजे। यह बात छिपी न रह सकी। उनके एक तहसीलदार भक्त को जब यह बात मालूम हुई, तो उन्होंने उस व्यक्ति को पकड़कर कारागार में डाल दिया। फिर स्वामी जी को बताने के लिए तहसीलदार उनके पास आया, तो स्वामी जी ने उसकी ओर देखा तक नहीं और अपने काम में व्यस्त हो गए। यह देख तहसीलदार को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने नाराजगी का कारण पूछा, तो स्वामी जी ने कहा, 'मुझे पता चला है कि तुमने मेरे कारण एक व्यक्ति को कैद में डाल दिया। तुम यह भूल गए कि मैं यहां लोगों को कैद करने नहीं, बल्कि मुक्त करने के लिए आया हूं। तुम्हारा यह काम मेरे उसूलों के खिलाफ है और इसे मैं कैसे बर्दाश्त कर सकता हूं। यदि तुम्हारी राह में कोई कांटा बुन रहा है, तो तुम उसके लिए फूल बनों। दूसरों के लिए अपना स्वभाव बुरा मत बनाओं।' यह सुनकर तहसीलदार खामोश रह गया। उसने स्वामीजी से माफी मांगी और उन्हें विष देने वाले व्यक्ति को रिहा करने का वचन दिया।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने न सिर्फ स्वयं क्रोध, मोह, ईष्या जैसे दुर्गुणों का परित्याग किया, बल्कि दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित किया। वे जीवन भर देश का भ्रमण कर अपने विचारों का प्रचार करते रहे। उन्होंने वेदों के प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया और इस काम को पूरा करने के लिए 'आर्य समाज' नामक संस्था की स्थापना की। उनके विचारों से लोगों को नई चेतना मिली अनेक कुरीतियों से छुटकारा मिला। स्वामी जी ने जहां जातिवाद और बाल-विवाह का जमकर विरोध किया, वहीं नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उन्होंने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिंदी भाषा को अपनाया। उनकी लगभग सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिंदी भाषा में ही लिखे गए।
स्वामी जी का जन्म गुजरात की छोटी-सी रियासत मोरवी के टंकारा गांव में 12 फरवरी, 1824 को हुआ था। बचपन से ही स्वामी दयानंद सरस्वती कुशाग्र बुद्धि के थे। मात्र 14 वर्ष की अवस्था में उन्हें यजुर्वेद के साथ-साथ अन्य वेदों के कुछ अंश भी कंठस्थ हो गए थे। वे व्याकरण के भी अच्छे ज्ञाता थे।