शहीद पं0 रामप्रसाद ’बिस्मिल’ के जीवन के आश्चर्यजनक पहलू, जो आप नहीं जानते!!


सरफरोशी  की  तमन्ना  अब हमारे दिल में  है
देखना  है जोर कितना  बाजुए-कातिल  में  है,
वक्त  आने  पर  बता  देंगे   तुझे  ऐ  आसमां
हम अभी से क्या बतायें, क्या  हमारे दिल में है।
प्रिय पाठकजनों!! शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की निडरता, उच्च मानसिक स्तर और साहस के बारे में कदाचित आप नहीं जानते होगे ना ही हमें ये कभी इतिहास में पढ़ाया गया है, कि एक ऐसा भी क्रातिकारी हुआ हैं जिन्होंने अपने फांसी लगने से दो दिन पहले, राष्ट्र के नाम संबोधन के रूप में एक पुस्तक लिखी थी। जिसे हम उनकी अद्भूत आत्मकथा भी कह सकते हैं, साथियों!! इस आत्मकथा की यह विशेषता है कि यह विश्व की पहली पुस्तक है जिसे किसी लेखक नेे फांसी लगने से दो दिन पहले पूरा किया हो। 
मौत की सजा मिलने के बाद, कुछ लिख-पढ़ पाना ही इमपासिबल या कठिनतम है। ''मौत'' बड़े से बड़े रेपिस्टों, दरिन्दों तथा सब को ''मौत'' बांटने वाले ''हत्यारों'' तक को भी ''पागल'' बना देती है, अधिकतर तो फाँसी से पहले ही मांस के लोथड़े (मृतप्रायः) हो जाते हैं, केवल उन्हें उठाकर फाँसी पर लटकाने भर की प्रक्रिया मात्र रह जाती है।
पाठकजनों!! वही मात्र एक 'डकैती' के जुर्म में मौत की सजा पाये ''बिस्मिल'' का चरित्र-व्यक्तित्व किस स्तर का होगा? जिसने फाँसी लगने से दो दिन पहले अपनी ''आत्मकथा'' के रूप मे देश को संबोधन! देकर अपने उच्च मानसिक स्तर, निडरता व देश प्रेम की एक मिसाल पेश की थी, जो युगों-युगों तक याद की जाती रहेगी!
पं0 रामप्रसाद 'बिस्मिल' को अंग्रेज सरकार ने ''काकोरी कांड'' में फाँसी की सजा सुनाई थी। इसी काकोरी काण्ड में राजेन्द्र नाथ लहिड़ी, रोशन सिंह, और अशफाक उल्ला खां को भी फांसी दी गयी थी। कुछ हजार रू0 की लूट के लिए ही चार क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी गयी और दर्जनों को काले पानी आदि की सजा सुनाई गयी थी। 
मित्रों!! ''बिस्मिल'' ने अपनी इस 'पुस्तक' का प्रारम्भ निम्न पंक्तियों से किया है-
     ''क्या  लज्जत  है  कि  रग-रग  से आती है  सदा
     दम न  ले तलवार  जब तक जान 'बिस्मिल' में रहे।
     मरते बिस्मिल, रोशन, लहरी, अशफाक  अत्याचार से
     होंगे   पैदा   सैकड़ों  इनके  रूधिर  की धार  से।''
     'बिस्मिल' का जन्म सन 1897 को हुआ था और 1927 में वह शहीद हो गये, उन्होंने केवल 30 वर्ष की आयु पायी, इसमें से उन्होंने 11 वर्ष क्रांतिकारी जीवन में व्यतीत किये। साथियों!! जीवन का वो समय जिसमें युवक हुस्न और इश्क की रंगीनियों में खोये रहते हैं उस आयु में ये देश प्रेम के लिए शहीद हो गये।
काकोरी कांड के सहअभियुक्तों में से उन्होंने “असफाक'' का चरित्र सर्वश्रेष्ठ मानते हुए उन्होंने लिखा है-
     असगर हरीम इश्क में हस्ती ही  जुर्म है,
     रखना कभी न पाव यहां  सिर लिये हुए।
अपनी पूज्य माता जी के विषय में लिखते हुए, 'बिस्मिल' की लेखनी ने कमाल ही कर दिया-वो लिखते हैं-
    “इस संसार में मेरी कोई भोग-विलास की इच्छा नहीं। केवल एक तृष्णा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किन्तु यह इच्छा पूर्ण होती नहीं दिखायी देती और तुम्हें मेरी मृत्यु का दुखःपूर्ण संवाद सुनाया जायेगा। मां मुझे विश्वास है कि तुम यह समझ कर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता-भारत माता-की सेवा में अपने जीवन को बलि-वेदी की भेंट कर गया और उसने तुम्हारी कुक्षी (कोख) को कलंकित न किया। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जायेगा, तब उसके किसी पृष्ठ पर उज्जवल अक्षरों में तुम्हारा नाम भी लिखा जायेगा।''
    'बिस्मिल' ने अपना चरित्र अत्यन्त असाधारण परिस्थितियों में लिखकर जेल से बाहर भेजा था, ये आश्चर्य की बात थी कि उन्होंने अपना मानसिक संतुलन किस प्रकार कायम किया होगा। 'बिस्मिल' ने जेल से भागने के कई मौके जान-बूझ कर छोड़ दिये थे। 'बिस्मिल' ने लिखा है-''अंत में अधिकारियों ने यह इच्छा प्रकट की थी, कि यदि मैं बंगाल का संबंध बताकर कुछ ''बोलशेविक संबंध“ के विषय में अपने बयान दे दूं, तो उनकी सजा माफ करके, उन्हें इग्लैंड भेज देगें, और उन्हें 15000रू0 पारितोषिक सरकार से दिला देंगे। परन्तु 'बिस्मिल' ने इन्कार कर दिया और मौत का वरण किया।
     आत्मकथा को समाप्त करने से पहले 'बिस्मिल' के अंतिम शब्द देखिये-
    ''--आज दिनांक 16 दिसम्बर 1927 ई0 को निम्नलिखित पंक्तियों का उल्लेख कर रहा हूं, जबकि 19 दिसम्बर 1927 ई0 को साढ़े छः बजे प्रातः काल इस शरीर को फाँसी पर लटका देने की तिथि निश्चित हो चुंकी है। अतएव नियत समय पर इहलीला संवरण करनी होगी ही।'' 
    और 19 दिसम्बर 1927 ई0 को बन्देमातरम और भारत माता की जय कहते हुए वे फाँसी के तख्ते के निकट गए। चलते समय कह रहे थे-
     ''मालिक तेरी रजा  रहे और तू ही तू  रहे,
     बाकि  न  मैं  रहूं,  न मेरी  आरजू   रहे।
     जब तक कि तन में जान, रगों में  लहू रहे,
     तेरा ही  जिक्र या  तेरी  ही जूस्तजू  रहे।''
    फिर वह फाँसी के तख्ते पर चढ़ गये और “विश्वानिदेव सवितुदुरितानी'' मन्त्र का जाप करते हुए फाँसी के फन्दे पर झूल गये।
साथियों!! हम बिस्मिल और काकोरी काण्ड के तीनों क्रांतिकारियों को हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, जय हिन्द, वन्दे मातरम्।


इन पर मेरी वीडियो भी देखें-