रुकी-रुकी सी शबे-मर्ग----(फ़िराक)


रुकी-रुकी सी शबे-मर्ग खत्म पर आई
वो पौ फटी,वो नई जिन्दगी नजर आई


ये मोड़ वो हैं कि परछाइयाँ देगी न साथ
मुसाफिरों से कहो, उसकी रहगुजर आई


फजा तबस्सुमे-सुबह-बहार थी लेकिन
पहुँच के मंजिले-जानाँ पे आँख भर आई


किसी की बज्मे-तरब में हयात बटती थी
उम्मीदवारों में कल मौत भी नजर आई


कहाँ हरएक से इंसानियत का वार उठा
कि ये बला भी तेरे आशिको के सर आई


दिलों में आज तेरी याद मुद्दतों के बाद
ब-चेहरा-ए-तबस्सुम व चश्मे-तर आई


नया नहीं है मुझे मर्गे-नागहाँ का पयाम
हजार रंग से अपनी मुझे खबर आई


फजा को जैसे कोई राग चीरता जाये
तेरी निगाह दिलों में यूँहीं उतर आई


जरा विसाल के बाद आईना तो देख ऐ दोस्त !
तेरे जमाल कि दोशीजगी निखर आई


अजब नहीं कि चमन-दर-चमन बने हर फूल
कली-कली की सबा जाके गोद भर आई


शबे-फ़िराक उठे दिल में और भी कुछ दर्द
कहूँ मैं कैसे,तेरी याद रात भर आई