घर-परिवार में शिशु के जन्म लेते ही मातापिता और सगे-संबंधियों के बीच खुशी की लहर दौड़ जाती है। इसी के साथ जागती है परिवारजनों के दिलों में नवजात शिशु के भविष्य एवं भाग्य के बारे में जानने की जिज्ञासा। परिवार के लोग शिशु के भविष्य की जानकारी के लिए रमल शास्त्र (अरबी ज्योतिष) अथवा अन्य ज्योतिष शास्त्र के विद्वानों के पास पहुंचकर जन्म पत्रिका आदि बनवाने की कोशिश करते हैं, यदि रमल शास्त्र के विद्वान या ज्योतिषाचार्य यह कहें कि नवजात का जन्म 'मूल नक्षत्र' में हुआ है तो परिजन चिंतित होकर अनिष्ट की आशंका से बचने के हरसंभव उपाय शुरू कर देते हैं। रमल ज्योतिष को यह सुविधा प्राप्त है कि वह सभी स्थितियों की जानकारी बिना जन्मकुंडली के प्रश्नकर्ता से पासा (जिसे अरबी भाषा में कुरा कहते हैं) डलवाकर तुरंत दे सकता है । यदि प्रश्नकर्ता सामने न हो तो भी प्रश्न-फार्म के माध्यम से भी प्रश्न कर्ता को जवाबमय समाधान के दिया जा सकता है। रमल शास्त्र के नवीन शोधों के आधार पर यह जानकारी प्राप्त करना अब और भी आसान हो गई है।
रमल शास्त्र व भारतीय ज्योतिष शास्त्र में 27 नक्षत्र होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के चार-चार चरण माने गए हैं। इनमें से अश्विनी, अश्लषा, मघा, मूल और रेवती - मल नक्षत्र कहलाते हैं जबकि धनिष्ठा, शतभिषा, पूवाभाद्र, उत्तराभाद्रपद और रेवती पंचक नक्षत्र कहलाते हैं। शास्त्र के मुताबिक इन नक्षत्रों में शुभ कार्य पूर्णतः वर्जित माने गए हैं। रमल शास्त्र के मुताबिक जब किसी नवजात शिशु का जन्मकाल किसी एक मल नक्षत्र में पड़ जाता है तो उसकी शांति के उपायों पर विचार किया जाता है। रमल शास्त्र में मूल शांति की खास व्यवस्था है, जो मूल नक्षत्र में ही क्रियान्वित की जाती है चूंकि मूल नक्षत्र में पैदा होने वाले शिशु का जन्म काल माता-पिता के लिए परेशानियां पैदा कर सकता है, इसलिए मूल शांति के समय माता-पिता को पूजा स्थल पर एक साथ अवश्य बैठना चाहिए या फिर उसे बैठना चाहिए जो शिशु का अधिष्ठाता होता हैँ.
मूल शांति के लिए नवजात शिशु का मूल नक्षत्र, जन्म के 27वें दिन बाद अवश्य आता है, इसे मूल शांति के लिए उपयुक्त समझा जाता है। जिस नक्षत्र में शिशु जन्म लेता है, वही उसका जन्म नक्षत्र कहलाता है। वैसे तो नौ दिन बाद भी मूल नक्षत्र आ जाता है, लेकिन वह हमेशा जोड़े में आता है जैसे कि रेवती नक्षत्र के अगले दिन ही अश्विनी नक्षत्र आ जाता है ये दोनों ही मूल नक्षत्र हैं। अतएव जब 27 दिन के मूल हों तो किसी अच्छे कर्मकांडी विद्वान से ही मूल शांति का कार्य संपन्न कराना चाहिए। वैसे मूल पूजन 27 दिन के उपरांत करना ही श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि कुआं पूजन और मूल नक्षत्र की शांति का कार्य 27 -दिन के उपरांत एक साथ किया जा सकता है।
अकसर मूल नक्षत्र में जन्मे शिशु उम्र के साथ क्रोधी और चिड़चिड़े स्वभाव के हो जाते हैं। रमल शास्त्र के मुताबिक बारीकी से प्रस्तार यानी कि जायचा का अध्ययन करने पर मालूम होता है कि मूल नक्षत्र में जन्मे जातकों के संबंध या तो पद-प्रतिष्ठा वाले व्यक्तियों, नवधनाढ्यों और बौद्धिक व्यक्तियों से होते हैं या फिर उनसे जिनका स्तर समाज में कुछ खास नहीं होता। मूल नक्षत्र का प्रभाव शिशु के परिवारजनों व बहन-भाइयों पर तो पड़ता ही है। जातक के दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों पर भी इसका सीधा प्रभाव दिखाई देता है।