जब उत्कृष्टता व्यक्ति के व्यवहार में उतरने लगती है तो धर्मनिष्ठा स्वतः प्रकट हो जाती है। मगध के राजा सर्वदमन को राजगुरु की नियुक्ति अपेक्षित थी। वह स्थान बहुत समय से रिक्त पड़ा था। एक दिन महापंडित दीर्घलोभ उधर से निकले। राजा से भेंट-अभिवादन के उपरांत महापंडित ने कहा-"राजगुरु का स्थान आपने रिक्त छोड़ा हुआ है। उचित समझें तो उस स्थान पर मुझे नियुक्त कर दें।"
राजा बहुत प्रसन्न हुए, - पर उन्होंने उनसे एक निवेदन किया वे बोले-"आपने जो ग्रंथ पढ़े हैं कृपया एक बार सबको फिर पढ़ लें। इसके उपरांत आपकी नियुक्ति होगी। जब तक आप आएँगे नहीं, - वह स्थान रिक्त ही पड़ा रहेगा।" : विद्वान वापस अपनी कुटी में चले गए और सब ग्रंथ ध्यानपूर्वक पढ़ने लगे। जब - पढ़ लिए तो फिर नियुक्ति का आवेदन लेकर राजदरबार में उपस्थित हुए। राजा ने अबकी बार फिर और भी अधिक नम्रतापूर्वक एक बार फिर उन ग्रंथों को पढ़ लेने के लिए कहा।
दीर्घलोभ असमंजसपूर्वक फिर पढ़ने के लिए चल दिए। नियत अवधि बीत गई, पर पंडित वापस न लौटे। तब राजा स्वयं उनके पास पहुँचे और न आने का कारण जानने लगे।
पंडित ने कहा-"गुरु अंतरात्मा में रहता है। बाहर के गुरु कामचलाऊ भर होते हैं। आप अपने अंदर के गुरु से परामर्श लिया करें।"
राजा ने नम्रतापूर्वक पंडित जी को साथ ले लिया और उन्हें राजगुरु के स्थान पर नियुक्त किया। बोले-"अब आपने शास्त्रों का सार जान लिया, इसलिए आप उस स्थान को सुशोभित करें।