सर्वसाधारण के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाए बिना कितनी ही साधना, कर्मकांड आदि क्यों न कर लिए जाएँ, निरर्थक हैं। एक-एक भिक्षु का तथागत को ध्यान था और यह भी कि कौन कैसा है? एक बार उन्हें एक भिक्षु का समाचार नहीं मिला और न ही वह दिखाई दिया। अपने समीप खड़े भिक्षु भदंत आनंद से उन्होंने पूछा-"अमुक भिक्षु कहाँ है?"
तो भदंत आनंद ने उत्तर दिया-"वह अतिसार से पीड़ित है।" सुनते ही तथागत बोले-"चलो, उसे देख आएँ।"
बुद्ध ने देखा रुग्ण भिक्षु अपनी कुटिया में अकेला बेसुध पड़ा है। किसी के द्वारा परिचर्या न किए जाने के कारण वह कुटिया में ही मल-मूत्र से लिपटा, सना पड़ा था। भगवान ने उसे देखकर कहा-"क्या कोई भी तुम्हारी परिचर्या को नहीं आया?"
बीमार भिक्षु ने सहमते हुए कहा-"नहीं आया भगवन्! वे सब योग साधनाओं में निरत रहते हैं मैंने यही सुना है। इसीलिए उन्हें मेरी चिंता नहीं है, यह भी वे लोग कहते हैं।"
अपने पास खड़े भिक्षुओं से कुछ न कहते हुए तथागत ने भदंत आनंद से कहा-"जाओ आनंद जल ले आओ। हम इस भाई की सेवा करेंगे।"
"हाँ भगवन्!"-आनंद ने कहा और जल लेने को चल दिया। जब जल का कलश आ पहुँचा तो भगवान ने स्वयं जल डाला और अपने ही हाथों से भिक्षु का सारा शरीर धोया। तथागत को स्वयं परिचर्या करते देख वहाँ खड़े भिक्षुगण भी परिचर्या में हाथ बँटाने लगे। तथागत ने किसी से कुछ कहा नहीं।
संध्या होने को थी। संध्याकालीन प्रार्थना के लिए सभी भिक्षुकगण एकत्र हो गए। परिचर्या के उपरांत तथागत बैठक में पहुंचे और उन्होंने बिना किसी भूमिका के भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा-"ज्ञान, योग और तप की कितनी ही महत्ता क्यों न हो, पर वे करुणासिक्त सेवा के बिना किसी भी प्रकार की उपलब्धि नहीं करा सकते। तुम सब सेवा-साधना को प्राथमिकता दो, बाद में योगाभ्यास करो। उसी से तुम्हारी संघ में आने, भिक्षु बनने की सार्थकता है।"