नींबू उपयोगिता का अक्षय भंडार है। जापान के सुप्रसिद्ध आहार-शास्त्री के शब्दों में घर में यह हमारा सेवक है, समाज के लिये उच्च कोटि का वैद्य है और समूचे राष्ट्रीय जीवन के लिए है एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक।
.....नींबू घावों, दाहों और चर्म-रोगोंके लिए सर्वश्रेष्ठ उपचार है । यह नासिका के रक्त-स्राव को क्षण भर में रोक देता है। फैक्टरियों में यह इस्पात को दृढ़ बनाता है । खाद्यागारों में भोजन को सड़ने नहीं देता। नवीन प्रयोगों ने तो यह भी सिद्ध कर दिया है कि एक्स-रे के कुप्रभावोंसे रक्षा के साथ-साथ, यह अणु-विकीरण से भी संरक्षण देता है।
द्वितीय महासमर में कुछ जर्मन कैदी बेलजियम लाये गये थे। उस समय उनके थैले में एक सफेद चूर्ण पाया गया। कैदियों ने बताया कि घावों के रक्तस्राव को तुरंत ही रोक देने के लिए यह विशेष रूप् से उन्हें दिया गया है। यह सफेद चूर्ण नींबू का सत्त पेक्टिन ही था। यह सत्त सभी फलों में पाया जाता है, पर नीबू में सबसे अधिक मिलता है। इस रहस्योद्घाटन के पश्चात् तो अमेरिका के डाक्टरों ने इस तत्व पर अनेक प्रयोग किये । इन प्रयोगों के फलस्वरूप १६४१ में शल्य-चिकित्सा के क्षेत्रमें एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ । नींबू के इस तत्व से मनुष्य की रक्त शिराओं में रक्तके प्लाज्मा (प्ररस) की पूर्ति की जाने लगी।
नींबू के रसमें कुछ ऐसे रहस्यमय तत्व भी पाये जाते हैं जिनके विषय में अभी तक और प्रयोग नहीं हो पाये हैं। इन तत्वों को विशेषज्ञों ने बायोफ्लेबोनाइड नाम दिया है। ये तत्व मछलियों को ताजी रखते हैं तथा उनके प्रभा ओषजनीकरण को रोकते हैं और फलों को नीले पड़ने से बचाते हैं । इन्हीं तत्वों के आधार पर विटामिन सी प्राप्त किया जाता है।
हंगेरीके वैज्ञानिक डा० अलबर्ट जैन्ट ज्योरजी, जिन्हें १६३७ में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था, १६३८ में अमेरिका में भाषण देने के लिये गये थे । उनके भाषण का मूल विषय था, नींबू की विशेषताएं और उसकी उपयोगिता। इन्हीं भाषणोके आधार पर संकिस्ट रसायनशाला में नींबू की छाल और उसके सत्व के शोध का कार्य शुरू हुआ था ।
नींबू की छाल का सबसे महत्वपूर्ण चमत्कार प्रमाणित हुआ है कि उससे एक्स-रे के विकारों से रक्षा की जा सकी है । फ्लोरिडा के वैज्ञानिकों ने नींबू की छाल का प्रयोग अणु-विकीरण से पीड़ित चूहों पर किया और आशातीत सफलता प्राप्त की । अब तो अमेरिका में सर्वत्र नींबू की छाल को सुखाकर उसका प्रयोग भोज्य पदार्थों में किया जाता है। इसमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, चर्बी और कई खनिज तत्त्व भी पाये जाते हैं।
द्वितीय महासमर से तो मानों नींबू की उपयोगिताओं का भंडार ही खुलने लगा है । उस समय टिन के बर्तनों की बेहद कमी हो गयी थी। अंततः वैज्ञानिक नींबू के रस से कागज को ऐसा स्निग्ध बना लेने में समर्थ हुए कि उस कागज से डिब्बे बनाये जाने लगे और इस प्रकार टिन की पूर्ति की जाने लगी । ओन्टोरियोकी रसायनशालाओं में अब भी ऐसे कागजों के डिब्बों में तेल भरा रहता है ।
डा० सी० ग्लेन-किंगने नींबू में से सर्वप्रथम विटामिन सी को प्राप्त किया था । लेकिन बाद में उन्हें मालूम हुआ कि नींबू के रस से निकला यह शुद्ध विटामिन छाल-सहित पूरे नींब ूसे निकाले गये अशुद्ध विटामिन की तरह प्रभावशाली नहीं है यही कारण है कि पाश्चात्य देशों में आजकल पूरा नींबू खाने की प्रथा जोर पकड़ रही है । मेक्सिको के आदि निवासी धार्मिक भावना से प्रतिदिन दो नींबू साबूत खाते हंै । आहार विज्ञान विशेषज्ञ निहौजरका कहना है कि इन आदि निवासियों को शायद ही कभी हृदय अथवा गुर्दै के रोग होते हैं। हौजरकी इस स्थापना को लेकर नींबू के गूदे और छाल के तत्त्वों का विश्लेषण जोरों से जारी है।
नींबू की सबसे बड़ी विशेषता यह यह ऋतुओंके अनुसार अपने गुणों में परिवर्तन करता है और ऋतुज दोषों के प्रतिकूल गुण पैदा करता है । यह योगवाही है अर्थात जिस पदार्थ में मिलता है, उसके गुणोंमें वृद्धि कर देता है।
जब सर एडमंड हिलैरी और तेनसिंह एवरेस्ट शिखर की चढ़ाईके लिए गये थे, तो अपने साथ नींबू भी ले गये थे । एवरेस्ट विजय के विवरण में बताया गया है कि इस अभियान में मुख्य रूपसे जिस पेय का प्रयोग किया गया, वह था नींबू का शर्बत । अत पर्वतारोही क्लबों में आप लोगोंको अक्सर यह कहते हुए सुनेंगे--मध्ययुग में आल्प्स को नेपोलियन ने जीता और इस युगमें विश्व की सबसे ऊंची पर्वत-चोटी एवरेस्ट को नींबू ने जीता।