ऋषभ देव विरक्त होकर अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य सौंपकर वन-प्रस्थान कर गए। दीर्घ काल तक भरत ने धर्मपूर्वक पृथ्वी पर राज्य किया। पुत्र के युवा होने पर वह भी पुत्र को राज्य सौंपकर वन में जाकर तपस्या में लीन हो गए। एक बार वह जल में खड़े हो कर जप कर रहे थे कि उन्होंने नवजात मृग को जल में बहते देखा। उन्हें उस पर दया आ गई। वह उसे अपनी कुटिया में ले आए। उसकी सेवा करने लगे, जो भरत अपनी पता, पुत्र, राज्य, सबका मोह त्याग चुके थे, उनका मन उस मृग में आसक्त हो गया। अब वह जप के मध्य में भी उसको देख लेते, उसके लिए चिंतित रहने लगे। भरत का अंतिम समय आ गया। उस समय वह उस मृग के ही विषय में सोच रहे थे और उसे स्नेह से देख रहे थे, इसी समय उनका शरीर छूट गया। अंतिम समय में मृग से आसक्ति के परिणामतः उन्हें मृग-योनि में जन्म मिला, परंतु अपनी तपस्या के कारण उन्हें अपने पूर्वजन्म का ज्ञान था, केवल पत्ते खाकर जीवन व्यतीत किया और शरीर छूटने पर - ब्राह्मण के यहाँ जन्मे। यहाँ भी उन्हें पूर्वजन्मों का स्मरण रहा। उन्होंने स्वयं को पागलों जैसा बना लिया; क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं बुद्धिमान बनने से सांसारिक व्यवहार में पड़कर पुनः आसक्ति न हो जाए। उनके व्यवहार का अटपटापन देखकर लोग उन्हें जड़भरत कहने लगे, यही उनका अंतिम जन्म था।