कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे ?
मानव से है प्यार मुझे
जब पीड़ित माताएँ निज आँखों से नीर बहाती हों,
कन्याएँ दहेज के कारण निज सम्मान लुटाती हों,
जबकि भूख से होनहार बच्चों की जाने जाती हों,
जब लाखों परिवारों की आवाजें मुझे बुलाती हों,
तब कैसे बंदी रख सकता है कोई परिवार मुझे ?
कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे ?
मानव से है प्यार मुझे
मैंने सुखी कहाने वालों को भी कर मलते देखा,
पथ के दावेदारों को भी नई राह चलते देखा,
अक्सर पथ की दृढ चट्टानों को पल में गलते देखा
मैंने कोमल कलियों को अंगारों पर जलते देखा,
कैसे आकर्षित कर लेगा फिर क्षण भंगुर प्यार मुझे ?
कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे ?
मानव से है प्यार मुझे
जिसमें जलकर खंडहरों पर महलों का निर्माण हुआ,
जीवनहीन जगत में फिर से संचारित नव प्राण हुआ,
जिसमें जलकर दानवता से मानवता का त्राण हुआ,
जिसमें जलकर सृष्टि हुई, संघर्ष हुआ, कल्याण हुआ,
उस चिंगारी से बचकर चलने का क्या अधिकार मुझे ?
कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे ?
मानव से है प्यार मुझे
दुनिया मुझको ठुकरा देगी तो एकाकी रह लूँगा,
अपने उर की व्यथा गगन से, दीवारों से कह लूँगा,
सबअन्यायों,अपमानों को हॅसते -हॅसते सह लूँगा,
मृत्यु अचानक आ जाएगी तो तनिक न दहलूँगा,
बाधाएँ सब -कुछ सहने को कर लेंगी तैयार मुझे ?
कैसे निज पथ से विचलित कर सकता है संसार मुझे ?
मानव से है प्यार मुझे