एक संत एक छोटे से आश्रम का संचालन करते थे। एक दिन पास के रास्ते से एक राहगीर को पकड़कर अंदर ले आये और शिष्यों के सामने उससे प्रश्न किया कि यदि तुम्हें सोने की अशर्फियों की थैली रास्ते में पड़ी मिल जाए तो तुम क्या करोगे?
वह आदमी बोला-तत्क्षण उसके मालिक का पता लगाकर उसे वापस कर दूंगा अन्यथा राजकोष में जमा कर दूंगा।
संत हंसे और राहगीर को विदा कर शिष्यों से बोले-यह आदमी मूर्ख है।
शिष्य बड़े हैरान कि गुरूजी क्या कह रहे हैं? इस आदमी ने ठीक ही तो कहा है तथा सभी को ही यह सिखाया जाता है कि ऐसे किसी परायी वस्तु को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
थोड़ी देर बाद फिर संत किसी दूसरे को अंदर ले आए और उससे भी वही प्रश्न दोहराया।
उस दूसरे राहगीर ने उत्तर दिया कि क्या मुझे निरा मूर्ख समझ रखा है? जो स्वर्ण मुद्रा पड़ी मिलें और मैं लौटाने के लिए मालिक का खोजता फिरूं? तुमने मुझे क्या समझा है?
वह राहगीर जब चला गया तो संत ने कहा-यह व्यक्ति शैतान है।
शिष्य बड़े हैरान हुए कि पहला मूर्ख और दूसरा शैतान, फिर गुरूजी चाहते क्या हैं?
अबकी बार संत तीसरे राहगीर को पकड़कर अंदर ले आए और वही प्रश्न दोहराया।
राहगीर ने बड़ी सज्जनता से उत्तर दिया-महाराज! अभी तो कहना बड़ा मुश्किल है। इस चण्डाल मन का क्या भरोसा, कब धोखा दे जाए? एक क्षण की खबर नहीं। यदि परमात्मा की कृपा रही और सद्बुद्धि बनी रही तो लौटा दूंगा।
संत बोले-यह आदमी सच्चा है। इसने अपनी डोर परमात्मा को सौंप रखी है। ऐसे व्यक्तियों द्वारा कभी गलत निर्णय नहीं होता।
ज्येष्ठ पांडव, सूर्यपुत्र कर्ण कर्म, धर्म का ज्ञाता, क्या कारण था कि अपने छोटे भाई अर्जुन से हार गया जबकि कर्म और धर्म दोनों में वो अर्जुन से श्रेष्ठ था। कारण था कि अर्जुन ने अपनी घर से निकलने की डोरी, भगवान श्री कृष्ण के हाथ में दे दी थी।
आपको हमें भी इसी प्रकार अपने मन तथा जीवन की डोर प्रभु के हाथ में दे देनी चाहिए।
विश्वास कीजिए जितने भी उतार-चढ़ाव आएंगे जीवन में लेश मात्र भी अंतर नहीं पड़ेगा इसीलिए सदैव कहता हूं कि जो प्राप्त है-पर्याप्त है।