भगवान के होते हुए भी जीव दुःखी क्यों?


बाज की जान गई और शिकारी वहीं ढेर हो गया। वृक्ष पर बैठा पक्षी उसी गीत में लीन रहा। पक्षी का पुरुषार्थ रंग ला सकता है, तो क्या मानव भगवान पर भरोसा रखकर असम्भव को सम्भव नहीं बना सकता? पूर्व के अशुभ प्रारब्ध को आज के शुभ कार्य द्वारा बदला जा सकता है। परमात्मा भी उसी की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करता है। कल का अजीर्ण आज के उपवास से मिटता है। कल का बैर आज की क्षमा याचना से मिट सकता है। कल का कर्ज आज चुकाया जा सकता है। रावण ने राम नाम की माला जपकर ही तो लंका का राज्य प्राप्त किया और राम की शक्ति को चुनौती देकर सीता हरण के माध्यम से अपने कुल का नाश कर लिया। हजारों जन्मों के संस्कारों को मिटाना और बदलना मानव योनि में ही सम्भव है। दशरथ ने अपने पूर्व के संस्कारों द्वारा ही अयोध्या नगरी का राज्य प्राप्त किया और राजा होते हुए श्रवण के माता-पिता के श्राप द्वारा पुत्र वियोग में अपने प्राण त्याग दिए। जटायु नाम के पक्षी ने अपने संस्कारों के बल पर ही 'राम' के हाथों अपना श्राद्ध करवा लिया। शुकदेव जी ने भगवान शंकर के मुख से कथा सुन ली और संस्कारों की शक्ति से व्यास पत्नी अरुन्धती के गर्भ को धारण किया और वैराग्यपूर्ण जीवन बिताया। भील बालक एकलव्य ने अपने संस्कारों के बल पर ही मिट्टी के द्रोण से वह सब कुछ पा लिया जो पाण्डव असली द्रोण से न पा सके। अपने दुष्कर्म के कारण तथा दुर्योधन की संगति से भीष्म और कर्ण जैसे धनुर्धारी जीवों को नीचा देखना पड़ा। वास्तव में जो परमात्मा का निषेध करता है व उसे परिच्छिन्न मानता है, या जो उसकी आज्ञा, गुण और कर्म के विरुद्ध चलता है, उसे भय प्राप्त होता है। निर्भयता के बिना जीव की अवस्था में स्थिरता नहीं आती तथा जीव नित्य और सत्य-सुख को नहीं भोग पाता।


हरिः ॐ तत्सत्।।


भगवान के होते हुए भी जीव दुःखी क्यों ?


नारी अथवा पुरुष के बस की बात नहीं होती कि वे सन्तान उत्पन्न कर सकें। अनेक ऐसी नारियां मिलेंगी जो सन्तान उत्पन्न करने के योग्य नहीं होती तथा ऐसे पुरुष भी कम नहीं हैं जो डाक्टरी रिपोर्ट के आधार पर सृष्टि की उत्पत्ति में अपनी आहुति नहीं डाल पाते। इसी प्रकार धरती अथवा कृषक भी अन्न पैदा करने में असमर्थ होते हैं। उनका पुरुषार्थ भी बेकार चला जाएगा यदि धरती में अच्छा बीज नहीं डाला जाएगा। कर्म रूपी बीज के आधार पर ही जीव सुख अथवा दुःख भोग रहा है। कर्म को भी दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि कर्म को तो पता ही नहीं होता कि उसका कर्ता कौन है ? कर्म अपने कर्ता अथवा फल के प्रति अन्धा होता है। कर्म तो सम्पन्न होते ही कर्ता का संग छोड़ जाता है, परन्तु जीव ही अपने किए कर्म के साथ जुड़ा रहता है, जिसके कारण उसे उसका फल भोगना पड़ता है। गीता के अनुसार जीव को कर्म करने की स्वतन्त्रता है तथा फल के विषय में जीव परतन्त्र है। स्वतन्त्र होते ही जीव अपने किए कर्म के प्रति उत्तरदायी हो जाता है। अपने कर्म का स्वामी बन जाता है। जब तक जीव सेवक के रूप में परतन्त्र बनकर कर्म करता रहता है उसे कोई जोखिम नहीं होता, तब तक जीव कर्म करने का साधन मात्र होता है। साधन के लिए कोई पुरस्कार अथवा दण्ड नहीं होता। साधक ही पुरस्कार अथवा दंड का भागी माना गया हैं!


-अचलानंद जी महाराज