सोमदत्त नामक एक ब्राह्मण राजा भोज के पास गया और बोला-''महाराज! आपकी आज्ञा हो तो उज्जयिनी के नागरिकों को भागवत की कथा सुनाऊँ। प्रजा का हित होगा और मुझको दक्षिणा का लाभ भी मिल जाएगा।''
राजा भोज ने अपने नवरत्नों और सभासदों की ओर देखा और फिर सोमदत्त की ओर मुख करके बोले-''आप अभी जाइए और कुछ दिन भागवत का और पाठ करिए।'' यह पहला अवसर था, जब महाराज भोज ने किसी ब्राह्मण को यों निराश किया था। लोगों को शंका हुई कि कहीं महाराज धर्मभ्रष्ट तो नहीं हो गए, उन्होंने विद्या का आदर करना छोड़ तो नहीं दिया। कई सभासदों ने अपनी आशंका महाराज से प्रकट भी की, पर उन्होंने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया।
ब्राह्मण निराश तो हुआ, परंतु उसने प्रयत्न नहीं छोड़ा। उसने सारी भागवत कंठस्थ कर डाली और फिर राजदरबार में उपस्थित हुआ, किंतु इस बार भी वही उपेक्षापूर्ण शब्द सुनने को मिले। भोज ने कहा- ''ब्राह्मण देव! अभी आप अच्छी तरह अध्ययन नहीं कर सके हैं। जाकर अभी और अध्ययन कीजिए।''
ब्राह्मण ने इस बार भागवत के प्रत्येक श्लोक को पढ़ा ही नहीं, बल्कि उसका भावपूर्वक मनन भी किया। उसके हृदय में भगवान के प्रति निष्ठा जाग गई। उसने आदर, सत्कार, संपत्ति और सम्मान की अपेक्षाएँ छोड़ दी और लोगों में धर्म भावनाएँ जाग्रत करने लगा।
बहुत समय तक जब वह ब्राह्मण राजदरबार नहीं गया तो राजा भोज ने पता लगवाया। सारी स्थिति ज्ञात होने पर वे स्वयं सोमदत्त से मिलने गए और उससे उज्जयिनी में भागवत कथा कहने का निवेदन किया। सभासदों ने राजा भोज से इस व्यवहार परिवर्तन का कारण पूछा तो वे बोले-''पहले यह ब्राह्मण धनार्जन के लिए कथा कहना चाहता था, पर अब इसकी भागवत कथा धन के लिए नहीं, वरन लोक-मंगल के लिए समर्पित है।''
(अखण्ड ज्योति से साभार)