ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय...

वाणी व्यक्तित्व का आभूषण है। वाणी से ही व्यक्ति के गुणों की पहचान होती है। गीता में तीन प्रकार के तपों की चर्चा है। इनमें शारीरिक तप, मानसिक तप तथा वाचिक तप शामिल है। वाचिक तप का आशय वाणी के प्रवाह से है। इसके संबंध में कहा गया है कि उद्वेग उत्पन्न न करने वाले वाक्य, हित कारक तथा सत्य पर आधारित वचन एवं स्वाध्याय वाचिक तप हैं। वास्तव में वाणी को संयम में रखने वाला व्यक्ति शिखर पर पहुंचता है। इसके विपरीत अनियंत्रित वाणी वाले व्यक्ति को जीवन में सफलता तो दूर अक्सर तिरस्कार का सामना करना पड़ता है।


जो व्यक्ति सदेव मीठा बोलता है उसके मित्रों और शुभचिंतकों का दायरा बढ़ता जाता है। मृदभाषी होने की स्थिति में लोगों के सहयोग और समर्थन में वह अत्यधिक ऊजी का संग्र्रह कर लेता है, जबकि कटु वचन बोलने वाला व्यक्ति अकेला पड़ जाता है। जो लोग मन बुद्धि व ज्ञान की छलनी में छानकर वाणी का प्रयोग करते हैं वही उत्तम माने जाते हैं। जो व्यक्ति बुद्धि से शुद्ध वचन का उच्चारण करता है वह अपने हित को तो समझता ही है, जिससे बात कर रहा है उसके हित को भी समझता है।


वाणी में आध्यात्मिक और भौतिक, दोनों प्रकार के ये ऐश्वर्य हैं। मधुरता से कही गई बात कल्याणकारक रहती है, किंतु वही कटु शब्दों में कहीं जाए, तो अनर्थ का कारण बन सकती है। कटु वाक्यों का त्याग करने में अपना और औरों का भी भला है। वाणी की शालीनता और शीतलता मनुष्य के व्यक्तित्व का आकर्षण बढ़ाती है। मधुर एवं कर्णप्रिय वाणी बिगड़े काम बना देती है। मीठी वाणी सफलता के द्वार खोल देती है और तमाम उलझनों को सुलझा देती है। इसके उलट कर्कश वाणी से समस्याएं और गहराने लगती है । बने-बनाये, काम बिगड़ने लगते हैं। इसीलिए, हमें सदैव मधुरवाणी को आत्मसात करना चाहिए। किसी मूर्तिकार की तरह हमें अपनी वाणी को तराशते रहना चाहिए,। बोलने से पहले हमें शब्दों को तोल लेना चाहिए। हर शब्द में मिठास और शालीनता का रंग भरकर मुख से दूसरों के बीच रखना चाहिए। आपकी वाणी ऐसी होनी चाहिए, कि अगर कोई सुने तो वाह-वाह करे।


संत कबीर ने कहा भी है कि 'ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोय। औरन को शीतल करें, आपहु शीतल होय।' इसे जीवन का मूल मंत्र बना लेना चाहिए।