कहते हैं कि जीवन के सारे दुख इस संसार से जुड़े हैं। जो अध्यात्म की राह पकड़ लेता है, वह दुखों से छूट जाता है। पर अधिकतर लोग अध्यात्म को अपनाना कठिन मानते हैं। उन्हें लगता है कि केवल पहुंचे हुए लोग ही इस दिशा में प्रवेश कर सकते हैं। अध्यात्म से जिस परम शक्ति तक पहुंचा जा सकता है, वह सब ओर ब्याप्त ही नहीं है, बल्कि हमारे अंदर भी छिपी है। इस सच को जानने पर हम उसे पाने की चेष्टा कर सकते हैं।
इसके लिए वानप्रस्थ की जरूरत नहीं है, न ही घंटों की साधना जरूरी है। जरूरी है कि हम अपने प्रति ईमानदार हों। इंसान अपने हर आचरण को सही बताने के लिए असलियत छिपाने के हजार तरीके ढूंढ लेता है, पर इस लुकाछिपी के खेल में झूठ को सच मानकर खुद को ही दर्द देता है।
अध्यात्म इस झूठ के पर्दे को फाड़कर हमें मुक्त करता है। हम भगवान से प्रार्थना के समय भी अपनी सच्चाई उनके सामने नहीं रखना चाहते।
स्वामी विवेकानंद का कहना है कि 'उस प्रभु के साथ अपने दिल को जोड़ने के लिए प्रतिदिन ईमानदारी से प्रार्थना करो। बच्चे की तरह उनके सामने अपना दिल खोल कर रख दो।'
जब हम ईमानदारी से अपनी बात कबूलेंगे, तब अपनी गलती समझ लेंगे। सच हमें आध्यात्मिक तौर पर स्वस्थ करेगा। डेनकार्नेगी ने ठीक ही कहा है कि प्रार्थना से हमारे मन में अकेलेपन की जगह बोझ बांट पाने की भावना जागती है। ।
अध्यात्म में धर्म की संकुचित भावना नहीं होती, वह स्वतंत्र और लचीला बनाता है। आध्यात्मिक व्यक्ति किसी धर्म का निरादर नहीं करता। उसमें डर और असुरक्षा का भाव नहीं होता। वह विश्वास में जीता है। रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में किसी भी रूप में उनसे प्रार्थना करो। वे सुनेंगे, क्योंकि वे चींटी के पैर की आहट भी सुनते हैं।