रात काफी हो गयी थी, सौरभ के शहर को जाने वाली बसें बन्द हो गयी थी, रोडवेज अड्डे पर लम्बे-मार्ग (लांग रूट) की एकमात्र बस थी, सौरभ चालक-परिचालक से काफी निवेदन करके उस बस में बैठ पाया था, वो भी इस शर्त पर कि बाई-पास पर ही उतार दिया जायेगा। सौरभ टिकट लेकर सीट पर जा बैठा और अपना बैग नीचे रख दिया। वह पूस की एक सर्द रात थी। कुछ ही देर में गाड़ी रवाना हो गयी। दिन भर की भागदौड़ से थके सौरभ की आंखे लग गई।
अचानक सौरभ को किसी ने तेजी से झिझोड़ा। वह एकदम चैंक कर उठा, ''क्या मेरा शहर आ गया? (सौरभ ने सोचा कि परिचालक ने उसे शहर आने पर उठाया है) पर तुम बोल कैसेऽऽऽऽऽऽ'' उसके शब्द गले में ही अटक कर रह गये, उसने देखा कि एक आदमी उसके सिर पर तमंचा लिये खड़ा था। ''निकाल तेरे पास क्या है ?' सौरभ ने उसे अपनी जेब से पैसे निकाल कर दे दिये, सौरभ की घड़ी भी उसने ले ली।
कुल मिलाकर वो 5 लुटेरे थे। सबके मुंह पर कपड़े बन्धे थे उनमें से एक ड्राइवर के पास पिस्तौल लिए खड़ा था। बाकि सब यात्रियों से रूपये, पैसे, कीमती सामान छीनकर एक गन्दे से थैले में भरते जा रहे थे। जो भी आनाकानी करता उस पर फौरन हमला कर देते, एक आदमी ने हिम्मत दिखाई तो उस पर भी हमला करके उसे घायल कर दिया। कुल मिलाकर बस का वातावरण भयावह हो गया था। बस के बाहर कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था, ऐसा लगता था कि बस किसी जंगल में खड़ी थी। सौरभ को भरी सर्दी में पसीना आने लगा।
सुरक्षा की दृष्टि से सौरभ ने अपना मोबाइल पहले ही बैग में रख दिया था, चूंकि उसमें किताबें इत्यादि ज्यादा थी, इसलिए फोन पर उनकी निगाह नहीं पड़ी थी।
अचानक सौरभ के फोन की घंटी बज उठी, जो पूरी बस में गूंज गयी, एक बदमाश उसकी ओर बढ़ा, और उसके बैग से फोन निकाल लिया, सौरभ ने उसके हाथ से फोन ले लिया, और उस लुटेरे से कहा- मुझे इसमें से सिम निकाल लेने दो, परन्तु वो उसे समय देने के लिए तैयार नहीं था, उसने तमंचा सौरभ के सिर पर दे मारा।
इस छिना-झपटी में एक ओर बदमाश उसकी तरफ बड़ा, सौरभ ने मोबाइल हाथ से छोड़ दिया,
दूसरा बदमाश अचानक बोला ''गुरूजीन (गुरू जी का) फोन उल्टा दे दे, -तिल्ली।''
पहले बदमाश ने उसे घूरते हुए सौरभ को मोबाइल वापस दे दिया-सौरभ आश्चर्यचकित था।
दरअसल सौरभ एक विद्यालय में शिक्षक था जिसमें आसपास के गांवों के काफी बच्चे पड़ते थे और वह विद्यालय उसी क्षेत्र के आसपास था जहां से होकर उस बस को जाना था।
अपने सूजे हुये सिर पर हाथ रखे, सौरभ फोन लेकर सीट पर बैठ गया, अचानक उसके मस्तिष्क में कुछ कौंधा और वह सीट से उछल कर खड़ा हो गया। सौरभ ने उनसे कहा भाई! मेरा फोन भी ले जाओ, तुम पता नहीं कौन हो जो मुझे 'गुरू जी' कह रहे हो, मैं तुम्हे नहीं जानता? यदि आप को वापस ही करना है तो सबका सामान वापस करो, नहीं तो आप मेरा फोन भी ले जाओ, यदि आपने ऐसा नहीं किया तो सब यात्री मुझे आपका साथी समझेगें, और मेरी खैर नही। सौरभ एक सांस में घबराता हुआ बोलता चला गया।
''यदि आाप नहीं माने तो मैं भी आपके साथ इसी जंगल में उतर जाऊंगा, यात्रियों और पुलिस से पीटने से तो यही बेहतर है।'' सौरभ ने घबराहट से आ रहे पसीने पौंछते हुये उनसे कहा।
डकैतों ने कुछ देर आपस में बातें की, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे, अचानक उनमें झगड़ा प्रारम्भ हो गया और आपस में पिस्तौले तन गयी, सभी यात्री घबरा गये, तभी उनमें से एक ने जो उनका ''सरदार'' लगता था उनका बीच-बचाव करवाया, उन्हे शान्त किया और सौरभ से बोला-
''मास्दर जी तमने म्हारे गरोह में फूट डाल दी है, म्हारे दो आदमी चाहै हैं कि समान उल्टा दे दे और दो मना करें हैं, अब या समान देना ह या लेना, या मेरे ऊपर ह। या के लये तमे मेरे एक प्रसन का जवाब देना पडेगा, का तम राजी हो।''
भाई साहब! तुम ''यक्ष'' हो सकते हो पर मैं ''युद्धिष्ठर'' नहीं हूंँ-सौरभ ने धीरे से कहा!
परन्तु यदि आपके प्रश्न का उत्तर देने से यात्रियों का समान बच सकता है तो मैं आपके प्रश्नों का उत्तर देने के लिये तैयार हूंँ-सौरभ ने डरते-डरते धीरे से कहा!
सरदार, गब्बर सिंह की तरह जोर से हंसा और बोला-''तम तो घबरारिये हो मास्दर जी'' मैं तो उस मास्दर की समझ देखनीं चाहूं हूं जा ने म्हारे गरोह मा फूट डाली ह''
''ठीक है भाई साहब! पूछो'' सौरभ की हिम्मत बढ़ सी गयी थी।
''मास्दर जी! हम का बस या बता दो कि या गाड़ी का मुंह किस दिशा में कू है। कोनो मशीन का परयोग नहीं करना है।''
यह कहते हुए उसने अपनी जेब से शराब की एक थैली निकाली और मुंह की तरफ से थोड़ा सा 'ढ़ाटा' (चेहरे पर ढका कपड़ा) हटाया और थैली को आम की तरह चूस कर, गाड़ी के बोनट पर बैठ गया।
सौरभ ने कहा ठीक है, खिड़की खोलो, मुझे आसमान की ओर देखने दो, मैं अभी बता देता हूंँ।
वा कैसे? सरदार बोला!
सप्तऋषि मंडल (सात तारों का समूह) हमेशा उत्तर दिशा की ओर इंगित करता है। दूसरा इस समय आकाश में 'शतभिषा नक्षत्र' भी दिखाई दे रहा होगा वह भी उत्तर दिशा को दर्शाता है, उन्हे देख कर मैं आसानी से आपको दिशा बता सकता हूंँ!-सौरभ ने आत्मविश्वास से कहा।
रूको!!!!! सरदार बोला, ''आसमान की माई देखके त कोई भी दिशा का, टेम भी बता सकता ह।''
''तम मुझ आसमान में देखे बगैर, आसपास देख के दिशा बताओ।'' मैं भी देखन चाहूं तम मास्दर हो या ऐसे ही काम चलाउ सरकार! और तम टेम की चिन्ता न करियों जहां या गाड़ी खड़ी ह, वहा से 10-10 कोस ते कोई आबादी ना ह, बस जंगल ह-कहते हुये सरदार ने एक बीड़ी सुलगाई और बस के बोनट पर पलोथी लगा कर बैठ गया।
सौरभ ने थोड़ा सोचा, सभी यात्री उसकी ओर आशा की दृष्टि से देख रहे थे।
ठीक है! आप मुझे अपनी टार्च दीजिये और मुझे बाहर देखने दें-सौरभ ने हिम्मत करते हुये उनसे कहा।
सौरभ ने ड्राईवर को सीट से हटाकर उसकी खिड़की खोल दी, पके हुये अमरूदों की खुशबू गाड़ी में भर गयी वह एक अमरूद का बाग था, जहां गाड़ी खड़ी थी। सौरभ ने टार्च मारकर अमरूदों का निरीक्षण किया, वह कुछ आश्वस्त था, फिर उसने बाग के अन्दर टार्च मारी, शक्तिशाली टार्च की रोशनी से सारे बाग में प्रकाश फैल गया। सामने एक मजार थी, मजार का मिनट भर निरीक्षण कर सौरभ पूरी तरह आश्वस्त हो गया था, उसने खिड़की बन्द कर दी और सरदार से बोला-
भाई जी! गाड़ी का मुंह पश्चिम दिशा में है और पीठ पूर्व में!
सरदार का चेहरा खिल गया और बोला-
अब या बताओ तम ने कैसे पता करा या तम तुक्का लगा रिये हो।
सौरभ ने बताया-सबसे पहले मैंने अमरूदों का निरीक्षण किया, फल सबसे पहले व सबसे ज्यादा पूर्व दिशा की ओर से पकता है, अतः अमरूद को देखकर मैं थोड़ा आश्वस्त था, परन्तु मजार को देखकर मैं पूरी तरह आश्वस्त हो गया क्योंकि मजार का सिर हमेशा उत्तर दिशा में और पैर दक्षिण दिशा में होते हैं।
मास्दर जी तम वास्तव में गुरू हो, हम अपनी लूट छोड़ते हैं और तमे सलाम करते हैं-सरदार ने खुश होकर कहा, फिर अपने साथियों को इशारा किया और वे लूट का माल बस में छोड़कर जंगल में गायब हो गये।
सौरभ जल्दी-जल्दी ड्राइवर को बस का रास्ता समझाने लगा, यात्रियों ने उसे प्रसन्नता से गोदी में उठा लिया।
(कहानी एक सत्य घटना पर आधारित हैं, पात्रों के नाम, स्थान सभी काल्पनिक हैं)
लेखक-संजय कुमार गर्ग