दिल्ली के साथ-साथ देश के एक बड़े हिस्से में वायु प्रदूषण के कहर के बीच सुप्रीम कोर्ट ने फिर से सक्रियता दिखाई। इसी के साथ केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार भी अपने स्तर पर कुछ न कुछ करती हुई दिखाई दी, लेकिन शायद नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहने वाला है।
इसका प्रमाण यह है कि दिल्ली और उसके आसपास हवा की गुणवत्ता और खराब होती दिखी। इसका सीधा मतलब है कि सेहत के लिए घातक साबित होते प्रदूषण से बचने के लिए ठोस उपाय नहीं किए जा रहे हैं। इसका पता इससे भी चलता है कि तमाम डांट-फटकार के बाद भी पंजाब में पराली दहन पर प्रभावी रोक नहीं लग सकी है। यदि हमारे नीति-नियंता यह समझ रहे हैं कि प्रदूषण के गंभीर हो जाने के बाद उससे निजात पाने के आधे-अधूरे कदम उठाने से समस्या का समाधान हो जाएगा तो ऐसा होने वाला नहीं है।
इस पर हैरानी नहीं कि दिल्ली में सम-विषम योजना पर अमल करने के बाद भी वायु प्रदूषण मे कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आ सकी। खुद उच्चतम न्यायालय ने पाया कि यह योजना प्रदूषण नियंत्रण का प्रभावी उपाय नहीं। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि सरकारें वायु प्रदूषण के मूल कारणों को समझने और उनका निवारण करने के लिए तैयार नहीं।
विचित्र बात यह है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ने पर तो शोर मच जाता है, लेकिन जब देश के दूसरे हिस्सों में ऐसा होता है तो अधिक से अधिक यह होता है कि इस आशय की कुछ खबरें सामने आ जाती हैं। क्या वायु प्रदूषण केवल दिल्ली के लोगों के लिए ही नुकसानदायक है?
बीते करीब एक दशक से अक्टूबर-नवंबर में वायु प्रदूषण उत्तर भारत के लिए एक आपदा जैसा साबित हो रहा है, लेकिन न तो पंजाब और हरियाणा की सरकारें पराली दहन की समस्या से निपटने के ठोस कदम उठा सकी हैं और न ही दिल्ली सरकार उन कारणों का निवारण कर सकी है जो प्रदूषण बढ़ाने का काम करते हैं। यह सरकारी तंत्र के गैर जिम्मेदाराना रवैये की पराकाष्ठा ही है कि शहरी विकास मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति की ओर से प्रदूषण को लेकर बुलाई गई बैठक में कई विभागों के अधिकारी पहुंचे ही नहीं। सरकारी तंत्र के ऐसे रवैये के लिए एक बड़ी हद तक केंद्र सरकार भी जिम्मेदार है।