आज चारों ओर यही चर्चा होती है कि बच्चों में संस्कार नहीं हैं। नैतिक मूल्यों का हनन हो रहा है। बहुत सोचने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची कि इन परिस्थितियों के जिम्मेदार हम ही हैं। पहले परिवार में सबसे ज्यादा अहमियत घर के बड़ों जैसे दादा-दादी आदि को दी जाती थी। सारी सुविधाएं सर्वप्रथम उन्हें प्रदान की जाती थी, तत् पश्चात् बच्चों का नम्बर आता था तो बच्चे बचपन से बड़ों का सम्मान करना सीख जाते थे। वेसे ही जानते थे कि घर में बड़ों का सम्मान सबसे पहले होता है।
किंतु धीरे-धीरे संयुक्त परिवार एकांकी परिवार में परिवर्तित हो गये और माता पिता ने अपने बच्चों को घर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बना दिया। बच्चे का कमरा सबसे सुन्दर होता है। बच्चे के पसन्द का खास ख्याल रखा जाता है। बच्चों को सिर्फ पढ़ने के लिए कहा जाता है, उनसे किसी अन्य प्रकार का कोई कार्य नहीं करवाया जाता है। माता पिता के पास चाहे अपने लिए पैसे न हो पर बच्चों का दाखिला अच्छे से अच्छे विद्यालय में करवाया जाता है, उन्हें महंगी से महंगी सुख सुविधाएं दी जाती है। घर में मेहमान के आने पर भी उन्हें चाय पानी पहुंचाने के लिए नहीं कहा जाता है यह सोचकर कि उनकी पढ़ाई में विघ्न न पड़े वे अपने कमरे में बैठकर पढ़ते रहते हैं।
ऐसे वातावरण में बड़ा हुआ बच्चा तो यह ही जानता है कि सब कुछ सिर्फ मुझे चाहिए। जब वह बड़ा होकर नौकरी करने लगता है तब भी वह सब कुछ अपने पर ही खर्च करता है और अपने बच्चे होने पर अपने बच्चों पर लुटाने लगता है।
अतः हमें खुद को बदलना होगा। पढ़ने वाले बच्चे तब भी पढ़ते थे जब एक ही कमरे में 10-10 लोग रहते थे। जब सुबह शाम वह खेत में काम भी करवाया करते थे। जब लड़कियां घर की साफ सफाई व खाना बनवाकर विद्यालय जाया करती थी।
मेरी यह गुजारिश है बच्चों को बच्चा रहने दें। अगर बिना सारी सुख सुविधा प्राप्त किए बच्चे नहीं पढ़ सकते होते तो एक आटो चालक का बच्चा आईएएस नहीं बनता।
दूसरों पर दोष थोपने के बजाए खुद को बदलो, तभी जग सुधरेगा।
-श्रीमती ऋतु शर्मा (मुख्य अध्यापिका) केन्द्रीय विद्यालय, बाबूगढ़