हंसना एवं मुस्कराना बहुत ही जरूरी है, क्योंकि इसका एकमात्र अधिकार मानव को ही प्राप्त है। विद्वानों का मानना है कि जब व्यक्ति हंसता-मुस्कराता है तो ईश्वर की आराधना कर रहा होता है और जब वह दूसरों को हंसाता है तब ईश्वर उसकी आराधना करते रहते हैं।
मेडिकल साइंस भी मानता है कि हंसने से तमाम बीमारियां दूर होती हैं। एक सवें में यह तथ्य पाया गया है कि हंसने का सर्वाधिक उपयोग नवजात शिशु करते हैं। साल-दो साल के बच्चे सोते रहते हैं फिर भी मुस्कराते रहते हैं। लगभग छोटी-बड़ी मुस्कराहट मिलाकर वे तीन-चार सौ बार मुस्कुराते हैं। छोटे बच्चों की सुंदरता का राज यही मुस्कराहट है। ज्यो-ज्यों वे बड़े होने लगते हैं और सांसारिक प्रभाव की चपेट में आते हैं तब सबसे पहले उनकी मुस्कराहट गायब होने लगती है। जिसके गायब होने से उनकी लावण्यता कम होने लगती है।
सवाल है कि जन्म से प्राप्त हंसी क्यों गायब हो जाती है। इसके पीछे वजह भौतिक कारणों के साथ आसपास के परिवेश में लिप्त हो जाना ही है। जब हम गलत खानपान, किसी भौतिक वस्तु की प्राप्ति या अन्य किसी
उपलब्धि के लिए चिंतित होते हैं तो उसकी विपरीत रासायनिक क्रिया शरीर पर पड़ती है। नकारात्मक जीवन शैली से तो इतना प्रभाव पड़ता है जिसकी कल्पना प्रायः आम आदमी नहीं कर पाता। जबकि कोई ऐसी वस्तु जिसे पाने की कोशिश की गयी, नहीं हासिल हुई तो भी प्रसन्न मन से पुनः प्रयास करना चाहिए। इससे निराशा नहीं होगी। भगवान श्रीराम को अयोध्या की गददी की जगह जंगल मिल गया। फिर भी वे विचलित नहीं हुए। धर्मग्रंथों के ये उदाहरण सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि सीख के लिए भी हैं।
प्रायः चित्रों में भगवान को मुस्कुराते हुए चित्रित किया गया है। इसका आशय ही है कि जहां मुस्कुराहट है वहां भगवान हैं। जबकि दैत्य के चित्रों में तनाव, क्रोध दिखाया जाता है। यदि कोई तनाव में है तो इसका अर्थ है उसके आसपास से भगवान हट गए हैं और दैत्यों आ गए हैं। इसलिए सुख हो या दुख हर स्थिति को झेलने की शक्ति सकारात्मक सोच से ही हासिल की जा सकेगी। वास्तविक हंसी के लिए सुबह जागने से लेकर रात सोने तक सिर्फ भौतिकता में डूबे रहने से बचना होगा। फिर ऐसा हो ही नहीं सकता कि जीवन से हंसी गायब हो जाए।
(प्रस्तुति-संजय कुमार गर्ग)