बुजुर्ग घर की आन होते हैं,
सारे परिवार की वे शान होते हैं।
घर के एक-एक सदस्य में उनकी सांसें अटकी हैं।
उन सबके ऊपर वे हजारों बार कुर्बान होते हैं।
समय का पहिया बड़ी तेजी से घूमता है। आज वो पहले वाले संयुक्त परिवार बहुत कम देखने को मिलते हैं क्योंकि एकल परिवारों का यह दायरा उतना सिमट चुका है कि नानी, दादी, बुआ, चाचू उन सबको आज बच्चे समझ नहीं पा रहे क्योंकि चाहे मजबूरी को झरोखें से देखें या किसी दूसरी तरह से विश्लेषण करें। आज बच्चों ने केवल बचपन से अपने इर्द-गिर्द अपने मम्मी-पापा या आया को ही देखा है लेकिन सवाल अब यह उठता है कि बुजुर्ग होते मां-बाप को अपने बच्चों से क्या उम्मीदें हैं? या बच्चे अपने माता-पिता से क्या अपेक्षा रखते हैं? वे मां-बाप जिन्होंने अपने जिगर के टुकड़ों को इतने लाड़-प्यार व दुलार से पाला होता है और पाल भी रहें हैं तो फिर उनसे यह अपेक्षा रखना तो मां-बाप का भी हक है कि वृद्धावस्था में बच्चे उनका ध्यान, मान-सम्मान करें। साथ ही समय मिलने पर उनसे साथ किसी भी धार्मिक स्थल व पिकनिक स्थानों पर ले जाये। परिवारजनों के साथ मनोरंजन करने से उनके सम्मान की रक्षा होती है तथा लंच, डिनर एक साथ बैठकर खाने से संयुक्त परिवार की नींव मजबूत होती है। कभी बच्चे बार-बार सवाल पूछते हैं तो माता-पिता उसकी कई बार बताते हैं लेकिन वहीं बुजुर्ग मां-बाप अगर एक सवाल दो बार पूछ ले तो बच्चे कहते हैं कि आप को इन बातों से क्या लेना देना? वो मां जो अपने बच्चों को सूखे पर सुलाकर खुद गीले अर्थात बच्चों द्वारा कियो गये गंदे व गीले बिस्तर पर सोती है लेकिन एक बार भी खेद प्रकट नहीं करती तो फिर बच्चे उनका सम्मान देने में क्यों कतराते हैं?
मैं तो यही कहूंगा कि मां-बाप, बच्चे परिवार रूपी गाड़ी के वो पहिए हैं जिनके बिना यह पारिवारिक गाड़ी अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुंच पाएगी। मां-बाप को बच्चों की भावनाओं, इच्छाओं की कद्र भी करनी होगी तो वहीं बच्चों को भी मां-बाप की आवश्यकताआें को पूरा करनी चाहिए।
किसी ने सही कहा है कि बुजुर्ग घर की छत होते हैं, जिस तरह बिना छत के मकान अधूरा लगता है। उसी प्रकार बुजुर्गो के बिना घर का वातावरण अधूरा है।
-उषा कुमार (प्रस्तुति-संजय कुमार गर्ग)